प्रातहुतै मुख पांन दये नहि, रैंनि जगी अंखिया अनुरागी।

याहीतै मैं पठई सबही मिलि, बोलन साथ बडी बडभागी॥

चालौ मिलौ उठिकैं हितसौं, उनकी अैसैं चाहि रही उरझागी।

चक्रत चाहि चहूंदिसितैं, अवसेरि ज्यौं चंद-चकोरन लागी॥

स्रोत
  • पोथी : नेहतरंग ,
  • संपादक : श्रीरामप्रसाद दाधीच ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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