दुखी दिन रात परी बिललात, कहूं किस बात जनम की जाती।

जु मांड के सुख भये सब दुख, बिना पीय मुख बिगसत छाती॥

गई सब बैस आये नरेस, जु याही अंदेस परी उर काती।

हो रज्जब कंत सु लेत हैं अंत, जु हेत सो हंत जरी जिये जाती॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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