रजस्वला नारीह, कथा गोप किण सूं कहूं।

समझौ हरि सारीह, (म्हारी) सरम मरम री सांवरा॥

भावार्थ:- मैं रजस्वला नारी हूँ। अपनी गुप्त कथा किससे कहूँ? हे हरि! हे साँवरे! मेरी शर्म का सब मर्म तुम समझते हो।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राज.)
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