पहली केस खिंचाय पुनि, अवस बढायौ चीर।

आयौ लाज गमाय नै, आखर जात अहीर॥

भवार्थ:- द्रौपदी की मधुर उपालम्भोक्ति है—पहले मेरे केश दु:शासन द्वारा खिंचने दिये, फिर अवश्य चीर को बढ़ाया। दुष्ट दु:शासन ने मेरे बाल खींचे, इससे मेरी लज्जा गई। कृष्ण आया तो सही लेकिन मेरी लज्जा को गंवाकर आया, आखिर जाति का अहीर ही तो ठहरा।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राज.)
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