जाण किसी अणजाण, तीन लोक तारणतरण।

है द्रौपद री हाण, सरम धरम री सांवरा॥

भावार्थ:- हे श्याम! कौनसा ज्ञेय पदार्थ तुम्हारे लिए अज्ञात है? तुम त्रिभुवन रूपी समुद्र से पार कराने वाले हो। द्रौपदी की शर्म और उसके धर्म की हानि हो रही है। तुम्हारे ही हाथों रक्षा हो सकती है, मुझ अबला के पास अब कोई चारा नहीं रहा।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राज.)
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