बहियो गज बारीह, तूं रुकमण प्यारी तजे।

मदती हर म्हारीह, धजबंधी धारी नहीं॥

भावार्थ:- गज की बारी आने पर तुम प्रिया रुक्मिणी को भी छोड़कर चले थे। हे हरि! हे ध्वजधारी! मेरी ही मदद तुमने नहीं की।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राज.)
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