हार्‌यौ खैचणहार, हर देतो हार्‌यौ नहीं।

वध्यो चीर विसतार, बाँवन हाथां वैत ज्यूं॥

भावार्थ:- खींचने वाला थक गया पर भगवान देते हुए नहीं थका। चीर का विस्तार बढ़ चला मानो भगवान वामन अपने हाथों से उसे नाप रहे हैं।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राज.)
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