माझी खिणक मिजाज, बे अदबी सातूं विसन।

लोभ घणो कम लाज, पैलां घर वांछै पिसण॥

वैरी रौ वेसास, कीधौ मन छोडे कपट।

वसिया नैड़ा वास, अवस हुआ बे-सास वे॥

रीझै सांभळ राग, भीजै रस नह भैचकै।

नैड़ौ आवै नाग, पकड़ीजै छाबड़ पड़ै॥

क्षणिक स्वभाव वाला स्वामी अशिष्टता, अतिलोभ, निर्लज्जता, चोरी, जारी, हिंसा, वेश्यागमन, जुआ खेलना ,(धुत क्रीड़ा) शराब सेवन, झूठ जैसे दुर्व्यसनों से ग्रसित रहने की कामना शत्रु सदैव ही प्रतिपक्ष के लिये करता है। इस दोहे में समुच्चय अलंकार है॥1

जिसने भी निष्कपट भाव से शत्रु का विश्वास करके उसके निकट रहना शुरू कर दिया वह निश्चय ही श्वासविहीन हुआ है। इस दोहे में हेतु और सम अलंकार है॥2

सपेरे की वीणा की स्वर लहरी में सर्प इतना अधिक अनुरक्त हो जाता है कि वह सर्वथा निर्भीक होकर स्वयं सपेरे के पास चला आता है और उसके हाथों छबड़ी में बंद होता है। इस दोहे में अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है॥3

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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