तन मो तिल तेतोह, आज सभा मझ ऊघड़ै।

हर-पंडव हेतोह, हूँ जाणूँ होतो नहीं॥

भावार्थ:- आज इस सभा के बीच यदि मेरा शरीर तिल भर भी बेपर्दा हो गया तो मैं समझूंगी कि हरि और पाण्डवों में कभी प्रेम था ही नहीं।

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राज.)
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