सखी हो..! सांवण मास विराजै।
अरस परस कौतूहल देख्या, उरध कँवल कै छाजै॥
परमल प्रीति उमँगि जल उलट्या, गगन गरज घण आया।
दांमणि उलटि आम मैं पैठी, नौ घण न्योति बुलाया॥
बादल त्रिविध पवन मुखि पीया, बंकनालि मैं बाई।
निरमल नीर अहो निस बूठा, घटा मेर मैं आई॥
औघट घाट अघट में अटक्या, सुषमनि सहजि समांणी।
ये नवनाथ नींद मरि सूता, नदी निवासै तांणी॥
इंद्र अकास अरथ मैं मीना, परसि परम सुख लीया।
जन हरिदास परस जल पैलो, मीन माछला जीया॥