सखि हो! गगन गरजि घन आये।

सुँणि सुँणि सबद कँवल निज विगसत, अंतरि अलख लखाये॥

सेज सुहाग भाग बड़ ग्वालणि, व्रह्छोल सुख पाये।

मन मैमंत राम रसि मातौ, घसि सुखसागर न्हाये॥

मोर मगन चात्रिग सुख चितवत, बीज चमकि झड़ लाये।

अनहद सबद गोपि धुनि गरजत, पिव मिलि प्रेम बढ़ाये॥

मथुरा मंडल होत अति आनंद, बेलि बधन वन छाये।

जन हरीदास जल पूरि परमगति, परम जोग पति पाये॥

स्रोत
  • पोथी : महाराज हरिदासजी की वाणी ,
  • सिरजक : हरिदास निरंजनी ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा ,
  • संस्करण : प्रथम
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