कबहुँ होवै मैला नाम धन कबहुँ होवै मेला।

चेतन होकर जड़ कूं पूजै मूरख मूढर बैला॥

जिस दगड़े पंडित उठ चालै पीछे पड़ गया गैला।

औघट घाटी पंथ बिकट है जहाँ हमारी सैला॥

बिनय बंदगी म्हेसा कीजै बोक बनै के खैला।

कूकर सूकर खर कीजैगा छांड़ सकल बद फैला॥

घरही कोस पचास परत है ज्यूं तेली के बैला।

पीसत भाँग तमांखू पीवै मूरख मुख सूं मैला॥

सहस इकीसौ छः से दम है निस बासर तूं लैला।

ग़रीब दास सुन पार उतर गये अनहद नाद घुरैला॥

स्रोत
  • पोथी : हिंदी संतकाव्य-संग्रह ,
  • सिरजक : ग़रीबदास ,
  • संपादक : गणेशप्रसाद द्विवेदी ,
  • प्रकाशक : हिंदुस्तानी एकेडेमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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