मुखांकंवल निरखत मन सुदा, जलम जलम रो पाप गयो।

सुर तेतीसूं सुरनर जाग्या, लख चौरासी वचन सयो।

शिवशंकर गुरु जसवंत जाग्या, जागतड़ां जैकार कियो।

सीताराम लखण गुरु गोरख, पांच नांव परभात लियो।

करम कळा सूं सुकरत जाग्या, शील संतोष’र धरम दयो।

जाखूं जुरा जलम दुख कांप्यो, पातक कांप्या कूड़ कयो।

जागो साध जपो सायबनै, हरिहरि नांव निकळंक भयो।

नांव बिना निरफळ जुग हांडै, कुण पुरखा अर कूण तयो।

जै जैकार हुवै जुग ऊपर, ऊठ’र पंछी पंथ पयो।

तास गुरु रा चरण सरेवां, गिगन भवंता भंवर हुयो।

जुग जुग खूनी दास तमारा, शरण आया चरण कयो।

‘देवो’ कह क्रिसन हरदाता, भो-भो राखो मौज मयो॥

स्रोत
  • पोथी : मरु-भारती (त्रैमासिक) जनवरी ,
  • सिरजक : सिद्ध देवोजी के सबद : सूर्यशंकर पारीक ,
  • संपादक : बसंतलाल शर्मा ,
  • प्रकाशक : बिड़ला एजूकेशन ट्रस्ट, पिलानी (राजस्थान)
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