दस अवतार दसूँ देसी, अवरां अवर चढ़ावै।

सो बाजीगर भलाक नांही, एक कूँ करै गमावै॥

परम पुरम का पार पावै, आसा सूँ लूधा।

सूधी रहा सहज ही छाड्या, ऊजड़ पड्या अलूधा॥

निराकार निरभै रे संतो, जो आकार सजावै।

हीड़ागर हीड़ा कूँ दौड़े, सो भी धणीं कहावै॥

तरंग सिंध सो भी हरि नाहीं, निहचै जाइ बिलावै।

जन हरीदास अविनासी भजतां, भव जल निकटि आवै॥

स्रोत
  • पोथी : महाराज हरिदासजी की वाणी ,
  • सिरजक : हरिदास निरंजनी ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा ,
  • संस्करण : प्रथम
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