भेख बणायो गरज छिन छिन छिजै देह धन धरती मै धरै जांकै रूप न रेख बरण नहीं भेष है खड़ी टोपी मै मोहन बासी उस देस का मूरिख का तो हिरदा भाटा होय रै पहर गले में गुदड़ी सकल कहावै सूरवां सुख सागर के मांहि