हरि भजै ताकै मुखि छार॥

कंवलनयन बिन क्यूं नर जीवै, पापी कहिं बिधि लंघै पार॥

अपस अबूधी आप घातकी, कूकर निगुरै लोपी कार।

नीच न्रिबंसी नाव जाणै। इहिं बिधि बूडा कालीधार॥

मुसकै कहा मूढ माया रत, मुगध बिगूते खाधी मार।

छूटण कहा कबज बसि कीया, लुबध्यौ काल मेल्है लार॥

पूत कलित बसि काइर काचौ, बिप्र बाहत ज्यूं खैंचै भार।

पुड़ै पुराणी आर लागै, कह हरदास सहै सुखिआर॥

स्रोत
  • पोथी : हरदास ग्रंथावली ,
  • सिरजक : संत हरदास ,
  • संपादक : ब्रजेन्द्र कुमार सिंघल ,
  • प्रकाशक : धारिका पब्लिकेशन्स, दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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