भजि रे मन हरिचरण, स्वामी असरण सरण
पतित पावन जाको बिड़द छाजै।
करम कानैं करण दुख दालिद्र हरण
बिना गोविंद क्यूँ भीड़ भाजै॥
जेथि जीव ऊबरे, काज कोई सरे,
सो नहीं कोई आपणै लोक माँही।
जीव को सगो, संसार में सोधियो
बिना गोविंद कोई और नाँही॥
तैं करम जेता किया, नहीं छटै हीया,
जीव जोलै पड्यो असति भापै।
तीन लोक मैं कहूँ ठोहर नहीं
राम बिना दूसरो कोण रापै॥
वो विरद मोटो बहै, पार को ना लहै,
तास की सापि, सुण साधू भणैं।
बात बखना बणैं, समझि घर आपणैं
चालि मन चलि मन तास सरणैं॥