साथणि म्हारी ये दरसण चावां स्वामी रूप का, दिल भर करां दीदार॥टेक॥

अरज हमारी स्वामीजी मानज्यो, मैं भाखूं सिर नाय।

तुम संम्रथ सब विधी हो, कृपा करो अब आय॥

पद रज सिर परि मैं धरूं, करूं चरण की सेव।

तन मन धन अरपण करूं, दियो छै भक्ति को भेव॥

अगम अचिंत ब्रह्म रूप हो, गम कहुं लखियन जाय।

सर्णै आय गुरु के दीन होय, भौ जल कूं तिर जाय

तर्क त्याग अणभै सबद, ये सतगुरु की छोल।

संगति करै कोइ सूरवा, दूर रहैगा ढोल॥

दया दीन परि कीजियो, अंमृत प्याला पाय।

सरूपां सरणै नित रहै,पद रज सीस चढ़ाय॥

स्रोत
  • पोथी : स्वामी श्री रूपदासजी 'अवधूत' की अनुभव - वाणी ,
  • सिरजक : सरूपां बाई ,
  • संपादक : ब्रजेन्द कुमार सिंहल ,
  • प्रकाशक : संत उत्तमाराम कोमलराम 'रामस्नेही' ,
  • संस्करण : प्रथम
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