साधैं भूख मास उपवासी, छूटै नहीं काल क्रित पासी।
भूखाँ मरि सिध हुवा न कोई, निश्चै हरि बिनि मुकति न होई।
रुकमांगदि बहु बरत दिढाया, तिणि नाहीं अमरापद पाया।
धर्मांगदि म्रितु झालण लीवी, तब करुणामय दया जु कीवी।
दान अनेक देहिं विधि पूरी, प्राण गमैं हेमाजलि चूरी।
बहु तप साधि दग्ध दुख काया, अपणैं मैं भरमि बहु लाया।
सुखनिधि सेवा करि चित्त लाई, हणौं विभीषण देखौ भाई।
उनकी करणी जाइ न करिये, जोग जग्य ब्रत दान बिनि तिरिये।
होम जग्य दत बलि बहु किया, सोई पयालि नराइणि दीया।
दान पुंनि का गरब गमाया, हरि बिन कुण दातार कहाया॥