मन की मूल ब्रित्ति न जाइ॥
कहा भयौ नित करम निहिचै, लुबधि लपटी लाइ॥
काम क्रोध कलेस काया, लोभ ललिचि पूरि।
समझि चूकौ चोट लागी, व्हैसी चकनाचूर॥
त्रिबिध ताप सताप सहिता, अवधि दिन कत वोड़।
प्रीति करि भौ पासि काटण, राम रटि रिणछोड़॥
फूलिमां मति फेरि भूला, कपट करणी काल।
पसरि गो पगि लागि मूरिख, मोह माया जाल॥
धन मींत पूत कलेत सैं जुगती, क्रिपा चाहै कूड़।
नीपजै क्यूं भगति निर्मल, आडौ सकल स्वारथ सूड़॥
सोचि एक सुचेत सुंदर, सचवि श्रीपति सार।
मुखि सरस हरदास मिश्री, बिलसि बारंबार॥