कलि के जनम बिगारत लोग।

मूरख महा, दोऊ वे खोवत, हरि की भक्ति, बिषै सुख भोग।

कलह कलेस करत दिन बितवत, विविध बिपति आस्वादी।

ऐसेहीं सब आयु बितावत, टेव तजत नहिं बादी।

दासी दास कुटुंब मित्र सब, याही दुख रस पगे।

‘नागर’ कोउ नाहिं समुझावत, सब स्वारथ के सगे॥

स्रोत
  • पोथी : नागरीदास ग्रंथावली ,
  • सिरजक : नागरीदास ,
  • संपादक : डॉ. किशोरीलाल गुप्त ,
  • प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ,
  • संस्करण : प्रथम
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