जा दासी ग्वाला नै कीज्यो, बाछ्या गाय मिलावै री॥
बांद्योड़ो बाछ्यो बोलैगो, मोहन ओझक जागै री।
अब तो रैन रही बस थोड़ी, टुक-इक लोयण लागै री।
धीरै बोलो, धीरै चालो, जनि झांझर झाणकाओ री।
अब जनि दही बिलोवो कोई, न परभाती गावो री।
पूरब द्वार पै परदा करदो, लेवो खोल पछियारै री।
चहुं ओरन पंछी न बोले, कोई बैठो जाय अटारी री।
पहरायत चौकस सब करद्यो, भरि नींद पिया सब सोवै री।
‘समनी’ कूं स्याम प्रभात समै, हरि को दरसण फिर होवै री।