‘नागी खग ले पूगियो, मद छकियो बनबीर।

‘कुंवर उदय सूतो कठै,’ पूछ्यो होय अधीर॥

सूतोड़ा चंदन तरफ, पन्ना द्यो संकेत।

मूक होय ऊभी रहीं, भूल मावड़ी हेत॥

उण आंधे बनवारिये, देख्यो आव ताव।

दो टुकड़ा कर देविया, चंदन, एकहिं डाव॥

धुत नशा में, कुत्त ज्यूं, भूंस भूंस नभ चीर।

बोल्यो ‘जय जय हो सदा, महराणा बनवीर’॥

बड़लै धू धू बोलियो, चमगादड़ री चीख।

फिर फिर बोली फ्याकड़ी, ‘जय जय’ पै निर्भीक॥

पग छूटा व्रख वागळां, चीं चीं करती रोर।

पांखां छाती पीटती, आभ उड़ी चहुं ओर॥

तारो टूटो आसमां, धर पै गरधब गान।

गूंजी जय जयकार जद, ‘बनबीरी महराण॥’

अड़ै भड़ै रा स्वान सब, जाण घुस्यो कहुं चोर।

इत उत दौड्या भूंसिया, फिर फिर कीधो सोर॥

‘महराणा बनबीर री, जय जय’ करतो खूब।

पाछो मेलां बाबड़्यो, बनबीर् ‌‌यो सुख डूब॥

रोई काळी कूतरी, गढ़ खूणै अण जाण।

स्वान रुदन सह फिर हुआ, जय जय गूंजत दाण॥

बादळ बीदा बाघ अर, अज्जा ज्यूं सिर देय।

बाळक चाल्यो सुरग में, देस भगति जस लेय॥’

स्रोत
  • पोथी : पन्नाधाय (खण्डकाव्य) ,
  • सिरजक : रामसिंह सोलंकी ,
  • प्रकाशक : चिराग प्रकाशन, उदयपुर
जुड़्योड़ा विसै