घण नहँ गरजो घाटियाँ, सूता बीर सख्यात।

जुगां जुगां लग जगत सूं, सोरम जाय स्यात॥

जीसी बै इळ पर जबर, लड़ै लेण इधकार।

मर मर खड़ा हुवै मरद, लिछमण ज्यूं ललकार॥

दे धऱती निज दुसमणां, जीवन घर आज्याय।

दिन खोटो उण देस रौ, समझ मरै मरमाय॥

हुवै झूंपड़ा में हजब, महलां री तज मोज।

जिका धरा दुख जाणसी, अरू निजरो घण ओज॥

ओज घणो मिळसी अठै, हिय धीरज राख्यांह।

नेह नाप्यां कम हुवै नी, अै टूटोड़ी टाप्यांह॥

धिन झूंपड़िया रा धणी, भुज थां भारत भार।

हो थे ही इण मुलक रा, सांचकला सिणागार॥

झूंपड़ियो रहसी जितै, इण धरती पर एक।

मिनख पणो रहसी मतै, छळी कपटियां छेक॥

मेट झूंपड़ा मुलक रा, चिण मत गढ कर चाव।

पळ भर नहँ सहसी परा, तप धार्यां रो ताव॥

सैगां रै मन में सचो, बधको हो बिसवास।

रीत प्रीत भाव रिया, खोया मंत्रज खास॥

एक एक सूं आगळा, तारा चिमकै तेज।

पण अंधारो झूंपड़ां हरै दिवो कर हेज॥

नीच ऊंच रो भेद नहँ, सुख दुख भोगै साथ।

त्रास सगती रो तठै, गांव भूलग्या गाथ॥

फंद होयगी फोगड़ां, ज्ञान तणी गंध।

सरळाई मेटण सज्या, अब गोरा मद अंध॥

सौ’रो सांस लेण दे, कागां री घण कांस।

निरबीजी भोम नहँ, है इसड़ो बिसवास॥

रजवट रीत पालणै, मरण सिखावै माय।

दूधड़लै बिसवास दिढ, सिंघां कवण सिखाय॥

माथा देणा मुलक नै, कारज सैज काय।

जणै अनड़ इसड़ा जिकी, मोत्यां मूघी माय॥

चाहै मातेती चित, भूल सकै नहँ भेद।

मायड़ इसड़ा सूं मती, ऊंची करी अमेद॥

मिनख पणै रो लखमरण, जाणै मरणूं जोन

सूजै उण सम सांपरत, मोटो कायर मोन॥

जबर मानीजै जगत, काट्यां अरि कर कोड।

मुलक बडो जिण हित मरण, होवै बध होड॥

स्रोत
  • पोथी : भारतीय साहित्य रा निर्माता: शंकरदान सामौर ,
  • संपादक : भंवरसिंह सामौर ,
  • प्रकाशक : केंद्रीय साहित्य अकादमी