कतनी बार मरूं, म्हूं कतनी बार मरूं?

उगता सूरज ज्यूं उठ, पाछी कतनी बार गरूं?

जद जनमूं जद वाही पीड़ा,

वै का वै नरकां का कीड़ा,

ऊही ढोबौ बोझ टनां कौ, कुण पै भार धरूं?

म्हूं कतनी बार मरूं?

या चौमेरूं फीकी हांसी,

झूठा अपणापण की फांसी,

सैं संझ्या चमनी कौ बझबौ, कतनी बार डरूं?

म्हूं कतनी बार मरूं?

दौड़ा-दौड़ मचाता सावा,

मिंदरां-मिंदरां तपता आवा,

काची मटकी बेच ठगोरी, कतनी बार करूं?

म्हं कतनी बार मरूं?

जे मांगै मीठी मनवारां,

नैणां-नैणां मद की धारां,

बेसोरम बण-बण केसूलौ, कतनी बार झरूं?

म्हूं कतनी बार मरूं?

स्रोत
  • पोथी : अपरंच ,
  • सिरजक : रघुराजसिंह हाड़ा ,
  • संपादक : गौतम अरोड़ा
जुड़्योड़ा विसै