चाह म्हारी ऊंची घणी
बैरण बुद्धि पण है ओछी
घूंट सोम रौ चावूं लेंणौ
पण पीवण नै अठै छाछ ही नीं
अभिलाषी हियै रौ पतियारौ
भळमाणस देसी साभासी
बैरीड़ा करसी नित हासी।
ज्यूँ हांसे कोयल नै कागलो
हंस नै बुगलो
अर पपये नै डेडरियो।
ई जग मांय मिनख घणां
ज्यूँ बैवै नदी, तळाब, झरणा
पाणी पांया निज बाढ़ सूं बधता जावै
हरख फगत खुद रौ ई मनावै।
सिंधू ज्यूँ विरलों माणस अेक ई हुयो
पुन्यू रै चाँद नै दैख’र उमाव मांय
उमड़्यौ-घुमड़्यौ जावै॥