कविता हुवणी चावै
पण कविता
म्हैं ई जाणूं हुवणी चाईजै
कविता पण कविता।
पण अे
जोड़कळा रख गारड़ू
रचै रिगटोळ
खांचै सबद सूर बायरा।
कविता रै अेड़ै-गेड़ै
कलम री कूंची झाल
रचावै
झींणा झांकता लहरिया
साटणपटी रा लंहगा
अर झांकती पिंड्यां रो
फूटरापो चीकणो चट्ट
केळी थांभ।
खुलतै कसणां री कांचळी
बींस्यूं झांकता हांचळ,
हांचळ लटूम्यो
सूनै खेत में पड़ी रोफळी सो
टाबर।
कुण देखै टाबर
कुण कूंतै
भूख टाबर री
दरसाव तो हुवै
कांचळी उफस्या हांचळ
घेर-घुमेर।
म्हैं जाणू...
अलेखूं आंतड़ियां
साव नागी है!
पण कुण जाणै
कविता चितराम
के केवै।
अकूरड़ी माथै
चिरड़ा चुगती
लुगाई रो चितराम
ढुकावै म्हासूं
पळती भूख बिचै
खुजरावै रा जुगल
बांथ घाल्यां आपस परी।
ढीटो म्हैं,
ढीटी म्हारी कविता
साव सूगली...
पण
म्हारै भूखै पेट रो जगतो
बासती
कुरावै कोरण्या
बांरी नागी सोच का पळका
घणी ई चांवता थकां
कै हुवणी चाईजै
कविता पण कविता..!