महीसागर अर होम ना चौपाड़ मअें वखेरायला हैं

काळां-काळा गोळ-गट्ट लौड़िया पाह्णां

अेंम लागै है

जाणै जीवणी नूं ज्हैर गळा तक रोकी नै

जगै-जगै

विराजमान थईग्या है

नांना-नांना सिवलिंग

ने अई’ज अमारी सभ्यता अर संस्कृति

पण

लौड़िया बणवा सारू भी

कई संघर्स करवा पड्या हैं

नं जाणै कणी काठी सिताल माथै

जोबन ना मद मअें वेंडी थई नदी ना

अट्टहासी झपाटा पड्या

तौ टूटी गई सिताल

कणां गरीब नं सपनं वजू

थई ग्यं नांनं-नांनं बटकं

जाणै हिरयै वयं आगपेटी नी

पूर ना ताण मअें ब्हेतै-ब्हेतै

आपणै आप ऊं लड़तै-लड़तै

बणी ग्या गोळ-गोळ पाह्णां

कोय अणं नै पूजै

अर कोय लोड़ी हमजी भी वांटै

पेट नौ खाडौ भरवा

पण

तौ सबनै आलै हैं सीख

जीवणी-जीवणी ऊं झूंजवा नी हिम्मत

नांनं टाबरं नीं मुलकाव वजू।

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : उपेन्द्र अणु ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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