नीं दीख्यौ जठै
अेक ई अणसैंधौ
लाग्या सै सैंधा-सैंधा
जिण-किणरौ
जोयौ उणियारौ,
विचारां रै वियांण
पल-पल पसीजतौ
छीजतौ छिण-छिण
सिरजण रै सीगै पूग्यौ म्हारौ मन
केई-केई बार
आभै रै उण पार।
लारै
घणौ लारै रैय जावै उण बगत
उजास रै सागै
अंधारौ पसरावतौ
सुवारथी सूरज,
दो कंवळा-कंवळा बादळां बिचाळै
अधरबम लटकतौ लखावै
रूप नै रुखाळतौ
चवदस रौ चांद,
सूंप’र धरती नै
तन-मन सूं अंवेरियोड़ौ चमक-चांनणौ
तूट-तूट’र
खिरता दीख्या तारा,
किणनै चाईजै चांद?
कोई नीं देखै जठै
सूरज रा सुपना
कुण बैठ्यौ हो बैलौ
तोड़ण नै तारा?
अंधारै सूं भर उजास री उडांण
उघाड़ी आंख्यां रै सुपनां सहारै
देख्यौ हूं म्हैं
अेक नूंवौ संसार
आभै रै उण पार।
कोई नीं लिया जठै
दिन भर दपूचा
ना देवणौ पडि़यौ किणी नै
मांझळ रात रौ म्यांनौ
ना जीवण रौ जुगाड़
ना मरण री मनस्या
अंतस उठियां आखरां रौ उफांण
भावां रै भरोसै पूग जावूं
पाणी सूं पैलां, सिरजण रै द्वार
आभै रै उण पार।
करणौ चावूं थिर मुकाम
रचाव रा रंग लेय’र
जद-कद पूगूं
आभै रै उण पार
पण हर बार
किरची-किरची व्है बिखर जावै
विचारां रौ वियांण
ऊपर सूं पड़ती बगत
रोकण नै म्हनै आफळै आभौ
पण धरती, झेलण नै त्यार।