अंतस रै आंगणै

पांगरियोड़ी पीड़

कुण जाणै?

कुण समझै?

समै रै परवाणै

रूत रै उणियारै

अणगिणत

अंजाण पंखेरू

बणायौ हो म्हनै-

आपरौ निजू नीड़

म्हैं

मुळकतौ हो

मन ही मन

देख 'र वांरी मुळक

हरियल पांखांळां-

सुवटिया

भांत भांत री-

रंगबिरंगी चिड़कलियां

एक दूजा सूं होड़ करती-

टिलोड़ियां

चढ़ जाती ही

म्हारी सै सूं ऊंची टोई माथै

उण समैं

मन मांय अणुतोई अंजस व्हैतो

जद-

म्हारी छीयां में

रूपाळां मोर

आपरी सतरंगी पांखां नै पसार

निरभै हुय निरत करता

तद-

म्हारे पगां घूंघरा बंध जाता।

सदा कूकती रैयी-

कोयलियां

म्हारै डाळ

मंडराता रै'ता-

मदमस्त काळा भंवरा

अर

पानां री ओट में लुकियोड़ो

मदभरियौ माखीमाळ

आती-जाती रातवासौ लेती

कुरजां रो डार

साचाणी

सुरंगौ अर सुहावणौ हो

म्हारो संसार।

म्हैं

जीवाजूण रो आधार रह्यौ

समैं रै समचै

निभाऊं

कुदरत रै वचनां री आंण

नितर

कांई बिगाड़ सकै है म्हारो-

बापड़ी अगन री झाळ

मरतै मानखै सूं म्हैं

कौल करियौ-

बळतै-बळतै सही

म्हैं

थांरी मुगती रो मारग बणूला

उणीज कौल रै परवाणै

आज

म्हारो रूप न्यारौ

पण

जीव सारू

जीवणौ है म्हनै-

कुदरत रो

एक जमारो।

स्रोत
  • सिरजक : गजेसिंह राजपुरोहित ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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