अंधारै अंधारै जाग जाऊं

मसीन ज्यूं चालूं

नव बजियां री लोकल पकडूं

आखै दिन गोता लगावूं

फाइला रै समंदर

चक्करघाण हुयौ

पकडूं फेरूं लोकल

आथडूं भीड़ में

थाकल बळद जिसी हालत

बावडं घरै

टीवी देखूं

सोय जावूं

ही म्हारी जीवा जूण

फैरूं सुबै

वा लोकल

वा फाइलां

वा भीड़

म्हैं

कैवण नै तो मरद

पण असल में घाणी रौ बळद।

स्रोत
  • पोथी : सातवों थार सप्तक ,
  • सिरजक : वाज़िद हसन काजी ,
  • संपादक : ओम पुरोहित 'कागद' ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन
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