हूं तो

फगत

देख सक्यो-

नीम रा झरता पान...

अर

ठूंठ होती साख!

पण,

जरूर

चिड़कल्यां री निजर

पड़ी है

पानां रै

झड़णै रे साथै...

साख-साख पर

फूटण हाळी

राती-कांची-कंवळी

डोड्यां माथै!

नीम रै

कड़वैपण में

उपजता

मिठास माथै...

इणी कारण

उणां

चूंचाट मचायो है

पांख्याँ फुलाय'र

रमझोळ मचायो है...

डैडाई

उमाव में

आय'र।

चिड़कल्यां रै तन

सरसायो है बसंत!

पण,

हूं नीं देख सक्यो उणनैं

आपाधापी,

धुंआधोर

अणगढ सौर

अर भागमभाग मांय

सांस कंठां आयेड़ो

दफ्तर अर घर बिचाळै

चकरोळ्या लेतो

जूण पूरी करूं

घाणी रै बळद ज्यूं!

म्हारी जाण-पिछाण

लोप हुयगी

बसंत सूं...

हूं उणरै

आवरण रै अरथां नैं

साव भूलग्यो

पण,

चिड़कल्यां नैं

अजै याद

बसंत रै आवण रो

मतलब,

उणरै

आवण सूं

के-के लागै,

के-के दीसै!

स्रोत
  • सिरजक : बाबूलाल शर्मा ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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