सांच छै
बड़ा मिनख नै
सांची कहीं
मन चंचळ
मन चकोर छै
मन दुनियां भर को चोर
मन कै कहन न चालियो
यो पल पल में
बदले छै ठौर,
मन कि मुठ्ठी ना बधें
मन के बधें ना गांठ
पल में सीमा लांघ ज्या
खाई रोके नं
परबत की ओट,
मन समझबो
बड़ो कंठण छै
अठी चलावे, उठी भागै
जद-जद टोंको
कढ़ ज्यां तन सूं आगै
कसी भी रीत की
नं राखे ओट,
फेर बी
एकमन के मत ज्यों
चाल ग्यो
परेम में जाएं पूरो डूब
दुःख की छायाँ नं पड़े
सब बंधन सूं जांवे छूट,
एकमन की मुठ्ठी
जिण नं बांध ली
बांधली एकेश्वर सूं
जीण नं गांठ
बिन ओट के
ठहर ज्यां
कदी न बत सूं
बहार होए
याँ ही सरग की गेल रे
मिनख का
दोनूं लोक
तर जाएं.....