सृष्टि है म्हारो अस्तित्व मूळ

अर है सृष्टि आदि उर्जा रो महाछंद

गुंजायमान् है जिणरा अणूता स्वर

म्हा में, आप में अर दृश्य-अदृश्य चराचर में

है म्हारो अंतस सृष्टि चेतना सूं आप्लावित

अर है म्हारी कविता रो सबद-स्फोट—

इण ब्रह्माण्ड चेतना री अभिव्यक्ति!

आंका म्हे म्हारी औकात

आत्मसात करां अस्तित्व रो अरथ

फेरूं करां प्रयाण सर्जना रै पथ पर

देखां फेरूं नियति रा सोनिल सुपना

आत्म साक्षात्कार रै क्षणां में ढूंढां म्हे म्हांनै

सोचां कै

के है म्हारो प्रयोजन?

सर्जना होवै निर्माण

उत्क्रांति होवै चेतना री दिव्य धरा

सबद होवै ब्रह्मवत् अनन्त

कविता होवै अंतस री अभिव्यक्ति

श्रेयस रो करण ही होवै सुखकर

नकारी अर सकारी अभिप्रेतां रो दुंद

नकारी शक्तियां नकारै म्हारो अस्तित्व

अर करै धरती पर विध्वंस री सृष्टि

म्हांनै नीं चाहिजै अै नकारी

जरासंधां री नीतियां

सर्जना रो पथ होवै उज्जवळ

कविता रो आभो होवै निर्मळ

सकारी अभिप्रेतां रा म्हे पक्षधर

गावां वैश्विक मंगळ रा गीत

सर्जना अर प्रज्ञा रा क्षितिज

सत्य अर शिव रा त्रैकालिक सूत्र

पुरूषार्थ रो उर्जामय उजास

करै म्हरी नियति रै सपनां रो

पथ प्रशस्त

विश्विक हित भाव रा सरजां म्हे सूत्र।

होवै है मानव सहस्त्र मुखी सूर्य

के होयै सकै है वो ब्रह्मवत् महान

पण अंधेरा सूं ढांपेड़यो

नीं समझ सकै है

निजू इयत्ता रो अरथ

वैश्विक भंभूळयां अर तमस री कारा में डूब्योड़ो

टूट जावै वो आखो

विकृत्यां सूं गाहिज्यो पड़्यो है धरती रो खाको

नीं बाधावां रो अन्त

अर नीं दमन चक्री इतिहास रै अध्याय रो समापन

इतिहास री आंधी कारावां में कैद मन

चाहवै तमस सूं मुक्ति

साम्प्रता भी तो है महाप्रळय रो काल खण्ड

विज्ञान री दीठ देखै विध्वंस रा सपनां

अणु अस्त्रां रा जखीरा

बन्दूकां री दनदनाती गोळियां

भौतिकता रो ज्वार अर

विध्वंसी जरासन्ध

छाया पड़्या है युग री

छाती पर

संत्रास में आखा डूबोड़्या

सुणां हां म्हारो ही आत्मक्रन्दन

सूखा पीपळ रा पता सा कांपा-अर फेरूं

होयै जावां स्पन्दनहीन

कुण सो न्याय

कुण सो सूत्र

विद्रोही कवि चेतना आहूतै

सिर्फ-शाश्वत मानव मंगळ रा बिन्ब।

क्रम विछिन्नता रो दौर

सामंजस्यता रा होयैग्या खण्डित सूत्र

विघटन अर बिखराव

विक्षोप अर त्रासद्यां रो ज्वार

विस्फोट अर आतंक

शून्य में ताकै पथराई सी आंख

मिनखपणां नै सूंघग्यो दुमुंही सांप

विष मुक्ति तांई चाहे अबे अमृत रा सूत्र।

स्वप्न द्रष्टा होवै मानव

वो नीं मानैं कदे ही हार

बणाय सकै है मानवता री समवेत शक्ति

धरती नै स्वर्ग

सहभागी हां आपां वैश्विक यात्रा रा

अन्त:गुम्फित है आपणी नियति

सब रो हित सोचो

अस्तित्व रै वट वृक्ष रै मूळ नै

अमृत सूं सींचो

समवेत हित भाव री ऋचावां री होवै

सृष्टि सहभाव रो रूप।

धरती पर हां म्हे अस्तित्ववान्

धरती अर सृष्टि है म्हारा प्राण

म्हे नश्वर नीं पण शाश्वत हां

रहवाळां म्हे अस्तित्वान् इण सृष्टि में

अणु रूप त्रिकाळ

चाहवां म्हारै अणु परमाणुवां री भौतिक देह पर

मूल्यात्मक चेतना दीठ रो अंकन

हीज सुणावेळो

सृष्टि अर त्रिकाळ नै

म्हारो आत्म आख्यान।

कर लिन्यो है म्हे आंधो सागर पार

खड़्या हां सृष्टि री आदि शक्ति रै साम्है

अर करां हां वतळावण अणु-परमाणु रै साथ

है सर्वत्र चेतना ज्योति रो विस्तार

करां प्रज्ञा रो वरण

कर देवां फेरूं महाकाळ रै विस्तार पर

अंकित मंगळ बिम्बां रा

सबद-स्तूप

उजास बस उजास।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : गोपाल जैन ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास