अंतस में धुकै

वेळा-कुवेळा

विचारां री धूणी

ओलै-दोळे

तपै आखर।

बळती जावै जड़

जागै चेतना

मथीजै मन

पूरा पतीज्यां पछै

उठा-बैठा हुवै

तप तापता आखर।

भरै जद भासा

भावां री उडाण

विचारां रै वियाण

हुवै असवार

सबद सांतरा

करै कमतर

रचूं कविता।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : शंकरसिंह राजपुरोहित ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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