जद भी पढूं हूं

म्हैं थारी कविता

पढण रै बाद

पसर जावै है मून...

सबद

जिका कुदड़का कर रैया हा

घणी बगत सूं

हुय जावै है

वै अबोला-सून

अर हिवड़ै उतर

ऊंडै काळजै

करण लागै है

भांत भांत रा नाद!

जणै चुप री हथाई सूं

हुवण लागै बात

अेक अैड़ी बात, जिणनै

थूं म्हारै अणकैयां सुण लेतो

म्हारी आंख्यां मांय पढ लेतो

म्हारा अै अणकैया-

अणलिख्यां सबद

थारै पढतां झरण लागता

म्हारी पलकां री कोरां सूं

म्हारी अलका रै छोरां सूं

गूंथण जातो

थूं फेरूं उणनै

थारै फुरसत रा डोरां सूं

चुग-चुग पुष्पां रा आखर

अर सबदां-सबदां रो पातो

थारो सिरजणधरम

फेरूं अेक

नूवी कविता रच पातो

वीं नै ही आज म्हैं

फेर सूं पढण बैठी हूं

जाणूं हूं, जकी नै पढ्यां पछै

फिरती पसर जासी मून

छया जासी अबोला

अर सबद हुय जावैला मून!

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : अनिला राखेचा ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : मरुभूमि शोध संस्थान
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