थांरा तो हिया सूं

अेक गुलाबी किरण रो बारै निकळणो

अर म्हारै प्रांणां रा पोयण रो खिलणो

कैड़ा होया जै स्त्री क्रिस्णा

सौरम रो अेक आखो बादळो

पसरग्यो सरवर माथै,

गैली पवन रमण लागगी म्हारा गाबां सूं

उडीकै हा भंवरा

उड़-उड़ झांकण लागग्या म्हारा हिया में

मंडरावण लागग्या म्हारा घर रै ओळूं दोळूं

अर गूंज-गूंज मचायो इत्तो कळरव, म्हारा प्रांणां में

कै बिसरग्यो म्हनैं म्हारै बिगसण रो उमावो

अर म्हारै ध्यांन री अेकाग्रता टूट

म्हनैं दाझणो पड़्यो थांरी अलेखां

आकरी किरणां में

थांरै दियोड़ा रूप नै

देख कोनी सकी

नीचै मुंडो झुकाय दरपण में

नाच कोनी पाई इण लाभ रा मोद में

गा कोनी सकी थांरै-म्हारै सगपण रा सींठणा

इण पैली ऊगग्यो सिंझा रा गिगन रो तारो

अर म्हनैं बंद करणो पड़्यो

म्हारै रूप बिगसाव रो आकार

म्हारै प्रांण-पराग री मजूस

थांरो परस, अपरस रह्यो म्हारा जीवण में।

स्रोत
  • पोथी : निजराणो ,
  • सिरजक : सत्य प्रकाश जोशी ,
  • संपादक : चेतन स्वामी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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