॥मनड़ा मैं रुण-झुण बाजै ओळूं का घूघरा॥

1 

कोई मनड़ो मन की पीर सुणै,
लहरां की वाणी कीर सुणै,
कांटां की कहण करीर सुणै,
चूनड़ की चकचंक चीर सुणै। 
पण नैण-नैण मैं बैण-सैण का
सगी नणद का बीर सुणै। 
मन मस्त मगन मतवाळा वै,
छैला, छळिया, छनगाळा वै,
राजा, रसिया, रूपाळा वै,
काळा कान्हा ज्यूं काळा वै। 
अर जामण जाया बीरा सूं ई,
साळा कहबा हाळा वै। 
म्हूं केसर की काची क्यारी,

वै महक्या मरवा मोगरा॥

2

कचनार कळी बण कनक छबी 
कुण किरण चांदणी की ऊबी,
मनड़ा की मूरत मरमोळी 
दुख दरद बोझ सूं दबी। 
कुण हरणी कांकड़ पै डांकै,
रंग मूठ्यां भर-भर कुण फांकै,
कुण घूंघटड़ा की ओटड़ली मैं 
अकटक पणघट सूं झांकै। 
भर-भर बाथां, करल्यूं बातां, 
पगडंडी पै आतां जातां,
पण भोळा भंवर भरमन्या बांध्यां

घूम्या जावै घरां-घरां॥


3 

ओळूं की पैली पोथी,
सरस्यूं का हर्या समंदर का पाना पै छपगी। 
ओळूं की जोगण,
सरमा-सरमी सायब को नांव सांवरा की संग जपगी। 
ओळूं की बरछी,
अणचूकी छूट-छूट काळज्या मैं तीखो भालो बण गपगी। 
ओळूं की आंसू की लड़ 
आंख्यां सूं रुळ, गालां का सुर्ख तुवां पै तपगी। 
ओळूं, घट की कस्तूरी,
पण हियो हरण भरमायो भागै 
ओळूं सपना की मूरत,
पण ओझक्यां मैं हिवड़ो जागै। 
ओळूं मन नैं कर दै ऊंचो
ओळूं मन नैं कर दे ऊंचो 
ओळूं मन नैं पटकै पींदै। 
ओळूं की गोप्यां 
गोपाल सांवरा का 
हाथां का हंडळोटां मैं हींडै। 
ओळूं संझ्या ढळतां देती सरवर तीरां घूमरां॥ 

स्रोत
  • पोथी : सरवर, सूरज अर संझ्या ,
  • सिरजक : प्रेमजी ‘प्रेम’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य संगम अकादमी ,
  • संस्करण : Pratham
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