कागदां माथै बिछाऊं सबद

आखर-आखर जोड़'र

बसाऊं नितूगै

एक नूवी दुनिया

जकी होवै म्हारी,

फगत म्हारी।

घड़तौ रैवूं

नित रौ कीं कीं...

ईश्वर!

म्हैं सीखग्यो थारी भांत

सिरजण रो सुख लेवणो

पण नीं सीखूंला म्हैं

थारै ज्यूं

आपरै बसायोड़ी दुनिया नै

मन आवै जद

मिटा देणो।

स्रोत
  • सिरजक : संजय आचार्य 'वरुण' ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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