(लांबी कविता री चौथी किरण रौ अेक अंस)
चिड़ियां री चहक सुण
प्राची रै पीळै पोतड़ियां
जागियौ बाळ प्रभात
हौळै-हौळै बीसरै
हालरियां री बात,
नीतरियै अंबर सर
मुख आब उजाळ
बैन बयार आंचळ
चख कंवळ संवार
केळ कणदोरै खिली
कूंपळ कूंवळी रौ
काजळियौ काढ,
चुटकी बजाई कचनार
विहंस सुणी अस हींस।
रांणै विक्रम रा भेज्या
सिरायत सिरदार
तातै तुरंगां आया पूगता।
हेलै सागै राळी मीरां बाग
जांण्यौ-जैमल आयौ होसी
भेळी उतारसां आरती,
पण देखतां मेवाड़ी पागां रा पेच
हुई अंत अणमणी,
धरणी टिकै ना आगै ऊठियोड़ा
हिय हय पौड़
सागे जागा गरणावती आफळै
मन रथ धुरी।
सबद खुलै उण पैल
बंधियौ सरणाटो गाढै गाढ,
थिर पलकां रथ रज थिरकतां
मीरां सुणिया जोजरै कंठ रा
आडा डौढ़ा बोल,
करी बतळावण
मुक्तकेसी कंवराणी सीधै बोल में-
'मोड़ा आया रे मांनीता सिरदार!
वा बेळा तौ कदे बीतगी,
म्हारी सार सुरछा रौ
कांई बतावौ मूंछळां मोद
मीरां तौ मार लिया जग छळ मीर
अै अमीर भलांई भंवौ
किरण रौ कांई कर लै कांवळा।'
'थे कांई देवौ बर बर में
सातियां री साख,
थांरी अरधंगी नै सूंपियौ
थे सेजां रौ नै चिता रौ ई आध
जे वै जूंझती जीवण थारै जोड़
थे जग रौ कोई समर नीं हारता।
पण वांरा कर कुरियोड़ा रैग्या
गढपतियां रै बारणै
चिता लग रह्यौ-
वारै चित रौ चोज,
म्हारा कर खुला किरतार रै बारणै
मुक्त चित्त चीन्हौ है चक्रधर चाल में।'
कहजो राणाजी नै
सावळ संभाळ राखै
मतां नै मेवाड़ कांई है कवै रै कांसां रौ
भेळौ मोह?
हूं तौ मिंदर मिंदर मूरत संवार
कर लेसूं प्राण पाळणा।
हमें नहीं म्हरा हाडकां में
मेड़तियां रौ सीर
सीसोद्यां रौ कदेको ही ऊठग्यौ,
मोड़ियां मुड़ै ना लागी लगन
रथवाह म्हांरी सांसां रौ सौदागर
सांम्ही आयग्यौ।
नारी हठ जांण रावत कह्या
जूनी जाजम रा ठीमर बोल-
'थां में नहीं म्हांरो सीर
पण म्हांरौ तौ है
थांरी सौ पीढियां री लाज में।'
'लाज तौ रैसी नरां!
आतम रै आपांण
ना रहै-
नारी रै नथ घालियां।
थे लेजौ थांरौ पीढियां सूं सीर
मीरां तौ मैरांण तिर आई अेकली
अेकली ही जावै है अगलै धांम,
थांरा अरथ अडांणां सूं
ढबिया ढबै ना
इण पथ रा-
अै पांणी पंथा घोड़ला।