घणा लम्बा हुवै
दु:खां रा मारग
जठे ठै’र जावै दिन-रात
अठीनै-वठीनै रूळै
तन मन…
रिश्ता रा जंगळ में
खड़कै पत्ता
बगैर आवाज़
पवन चालै है
पण—
बे असर
फूलां री सौरम
कैद हुवै-पांखड़िया में
इण लम्बा मारग में
समै-उमर री तांक-झांक
मौसम रो अहसास
बदळ्यो बदळ्यो जणावै
बसंत आवै
पण मन रो आम को’नी बौरावै
होळी रा रंग
तन-मन नै नीं रंग पावै
अेक चोट
पछाड़ै है, हर बार
मन—
लहरां में फंस्यो राजहंस
नीं आगै जावै
नीं पाछै आवै
थपेड़ा खावै
आशा-निराशा रो
हिम्मत-कायरता रो
अहसास
कदै डूबावै
कदै तिरावै
घणा लम्बा हुवै
दु:खां रा मारग।