जद तक

दादो जी हा

घर में डर हो

दादो जी रै गेडियै रो।

गेडियै रो ज्यादा

पण दादोजी रो कम

डर लागतो म्हानै।

दादोजी

घर री

नान्ही मोटी जिन्सा

अर खबरां माथै

झीणी निजर राखता

बां री जूनी

मोतिया उतरयोडी

आख्यां सूं पड़तख

की नीं सूझतो

पण हीं यै री आंख सूं

सो कीं देखता

म्हारा दादो जी।

घर जित्ती

परबीती री चिंता

अखबार भोळावंतो

बा नै हरमेस

वै आखे दिन

चींतता घर आयां बिच्चै

जगती री चिंतावां नै।

अखबार समूळो बांचता

विज्ञापन तक टांचता

भूंडा विज्ञापन

फिल्मी पान्ना

हाथ नी लागण देंवता।

म्हां टाबरा रै

पढ च्यार पुड़द कर

राख लेंवता सिराणै नीचै

जीमती बरियां

गऊ ग्रास राखण ताईं

की पात्रा देंवता दादी नै

जीमती बरियां

इयां करण सारू।

टाबरो पढल्यो दो आंक!

पढ्योड़ो सीख्योड़ो

काम आवै!!

इण रट रै बिचाळै

खुद पढता

गया परा दूर म्हा सूं

पण आज भी घर में

दादो जी री बातां रो डर है

डर है भोळावण रो!

आज भी म्हे टाबर

विज्ञापन अर फिल्मी पान्ना

टाळ'र बांचां अखबार

कै बकसी दादो जी!

दादो जी कोनीं आज

फगत गेडियो है

एक कूंट धरियो

आज डर नी है

गेडियै रो।

स्रोत
  • पोथी : थार सप्तक (दूजो सप्तक) ,
  • सिरजक : अकिता पुरोहित ,
  • संपादक : ओम पुरोहित ‘कागद’ ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन
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