म्हैं देखूं नीं

पिछाणूं हूं-

कै म्हारै माथै

कितरी-कितरी फूटरी

रचनावां रची जाय सकै।

म्हैं रूंख!

जिको आपरो मूंडो

भौम री मधरी छाती सूं चिपायोड़ो

इमरतपान करतो

म्हारो आखो जीवण सूंप देवूं

बस्योड़ै जीव-जिनावर सारू

रोजीनै आपरी जिनगाणी सारू।

आपरी डाळियां अर पानां रै सागै

बाथां उठा’र

अरदास करूं-कै म्हैं म्हारै

हरियाव सूं

किणी बटाऊ नै

सीतळ छियां देवतो

बण जाऊं बिसराम री थळी...

म्हारै कुटुम्ब रै सागै-सागै

मिनखां रै कुटुम्ब तांई

पूगतो जाऊं

आभै रै बीं पार।

स्रोत
  • सिरजक : कृष्णा आचार्य ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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