जद जी चावै हेत जणा दो
ना टैम गिणो ना मौको रे
मायड़ रो हेत अनोखो रे!
हंस-हंस के सब जग बतळासी,
हां में हां भी खूब मिलासी
पर जो घट पर पड़दा पडर्या,
पार उंकै तो कोई-कोई जासी
पण बा तो रग-रग की जाणै,
मां का नैन ना खावै धोखो रे
मायड़ रो हेत अनोखो रे!
मां बिन सूनी पीहर की गळियां
आंगण सूनो, सूनी धळियां
बा होती तो साम्हीं आ जाती
भर-भर बांधां हेत जणाती
पण अब बो टैम कठ्यांसूं लाऊं
बो पळ-छिण आणी ओको रे
मायड़ रो हेत अनोखो रे।
छत्तीस बरणी बत्तीस त्यारी,
रूप-सज्जा ऊपर सूं न्यारी
रूच-रूच भोग जिमावण तांणी,
ऊबा खड़ा सुघड नर-नारी
पण फेरूं भी मां रै हाथ रो,
गास्यो सब सूं चोखो रे
मायड़ रो हेत अनोखो रे।
सावण हर्यो जेठ भर सूखो,
कदे धाया कदे रहसी भूखो
दुनियादारी माया को झोको,
कदै सिळासी, कदै देसी धोखो
पण मां री ममता यूं बरसै
जाणै बारहमास चौमासो रे
मायड़ रो हेत अनोखा रे!