नागौर अर बीकानेर रे सिंवाडे़,
एक मतीरे तांई जूंझता जोधार,
आपस में एक दूजे नै
इंयां बोटे हा,
जांणे मतीरो बोटे।
पंण! कळै रै मूळ बी मतीरे,
पेली बार देख्यो हो,
एड़ो भयंकर समरांगण,
रगत सूं राती धरती दे'खर,
बी पाक्योड़े मतीरे री रातांस,
फिकी पड़गी।
जुद्ध में घोड़ां री
टांपा ऊं गुड़कतो बो मतीरो,
जाय भिड़्यो,
एक कट्योड़े नरमुंड सूं
देख बी मुंड ने,
मतीरो पसीजग्यो, अर बोल्यो—
''जै मने हुवतो ठा,
म्हार जेड़े तुच्छ सारू,
कट ज्याओ थे इत्ता मुंड,
तो हूं ऊगतो हि को'नीं,
सुतो ही रैवतो,
मां धरती रे खोळे में।
अर ''निरबीज भूमि कबहू न होय'' सूक्ति ने,
कर देतो कूड़ी।''
सुणंर बो कट्योड़ो मुंड हंस्यो! अर् बोल्यो—
थनै कुंण कियो म्हें कटिया हां थारे तांई,
अर मरग्या मतीरिये माथे।
म्हें कटिया हां
म्हांरे किसानां री आंण स्वाभिमांण सारू,
अर हां!
वसुधा रोक सके उगणै ऊं,
थां जेड़ा कंवळा काकड़िया अर मतीरिया नै,
रेय सकै बंजर ऊबै सावण।
पण!
आ राजस्थानी धरती जगत में सिरमौर है,
सुरां री खेती सारु,
कदेई नीं पड़्यो सुरां री फसल रो काळ,
सदैव रियो है अठे,
जोधारां रो जमानों।
इणरा जाया रगत सूं सींची है इणनै
पीढ़ी दर पीढ़ी।
रे मतीरिया!
रुळसी लाखूं तिरिया,
अनुगमन कर पतियां, हूवसी सतियां,
राखसी रजवट री रीत, गाइजसी गीत,
रजपूती शान में, लोक री जबान में,
डिंगल रे बंधां में, अर चारण रे छंदा में।
आं धूंसते घोड़ां रे खुरां ऊं,
थारी इंण बेल रो,
हूय सकै समूळ नास,
गम सके थारौ बीज,
पड़ सके ईं धरती माथे काळ,
थां मतीरियां रो।
पण आज ईं ठौड़,
आ धरती सिंचीजी है रगत सूं,
अर पायो है,
सुरापणै रो पोषण।
ईं पोषण रे पांण ही,
भारत माता मोदीजे,
खुदरे मोभी सुत रजथान माथे।