(अेक)

नागौर अर बीकानेर रै सिंवाड़ै
अेक मतीरै तांई जूंझता जोधार
अेक-दूजै नैं इयां बोटै हा
जाणै मतीरो बोटै

पण कळै रै मूळ बीं मतीरै
पैली बार देख्यो हो
अैड़ो भयंकर समरांगण

रगत सूं राती धरती देख’र
बीं पाक्योड़ै मतीरै री ललाई
फीकी पड़गी
जुद्ध में घोड़ां री टापां सूं
गुड़कतो बो मतीरो
जाय भिड़ियो
अेक कटियोड़ै नरमुंड सूं

देख बीं मुंड नैं
मतीरो पसीज गियो अर बोल्यो!
जे म्हनै होवतो ठाह
म्हारै जेड़ै तुच्छ सारू
कट ज्याओ थें इत्ता मुंड
तो हूं ऊगतो ई कोनी
सुतो ही रैवतो
मां धरती रै गरभ में

आ सुण’र बो कटियोड़ो मुंड हंसियो
अर बोल्यो!
थनैं कुंण कैयो म्हे कटिया हां थारै तांई
अर मरग्या अेक मतीरियै माथै
म्हे कटिया हां
म्हारै कुळ री काण अर
बांकपण री बाण सारू

अर हां!
वसुधा रोक सकै उगणै सूं
थांरै जेड़ा कंवळा काकड़िया
अर मतीरियां नैं
रैय सकै बंजर ऊभै सावण
पण आ राजस्थानी धरती
जगत में सिरमौर है
अठै कदैई नीं पड़ियो
सूरां री फसल रो काळ
सदैव रैयो है अठै
जोधारां रो जमानो
इणरा जाया
इणनैं सींची है रगत सूं
पीढ़ी दर पीढ़ी
रे मतीरिया!
रुळसी लाखूं तिरियां
अनुगमन कर पतियां रो
होवसी सतियां
राखसी रजवट री रीत
लिखीजसी सुजस रा गीत
जोधारां री शान में
लोक री जबान में
डिंगल रै बंधा में
अर चारण रै छंदा में

आं धूंसतै घोड़ां रै खुर सूं
होय सकै समूळ नाश
थारी इण हरियल बेल रो
गम सकै थारो बीज
पड़ सकै ईं धरती माथै काळ
थां मतिरियां रो
पण आज इण ठौड़
आ धरती सींचीजी है
बोल साटै मरणियां रै
सामधरती रगत सूं
अर पायो है इण सूं
खुद सूरापणै पोखण
इण पोखण रै पाण ईज
भारत माता मोदीजै
खुद रै मोभी सुत
राजस्थान माथै।

(दो)

मतीरै री राड़ में
रणखेत होवता
सूरां नैं देख’र
बो मतीरो बोल्यो
राड़ आडी तो बाड़ ही चोखी
आ सुण’र
नागौर
आळो किसान
झाळ खावतो बोल्यो
अरे दुष्ट!
तूं ई भळै बोलै है कांई
तूं ई तो है इण राड़ रो मूळ
जे म्हनैं ठाह हुवतो पैलां
कै म्हारै ई खेत में पनपै है
कळै री अेक जड़
मतीरै रै भेख में
तो हूं बाढ़ देतो थनैं
निदांण रै टेम ही
डचाबड़ी सागै
अरे बाड़ां री बातां करणिया नीच!
थनैं कांई ठाह कोनी हो
कै आं बाड़ां रा बंधण ही
राड़ां रा रचाव है
कांई जरूत ही बाड़ फांदणै री
क्यूं लांघी ही थूं कार
बठीनै थारो कांई नांनांणो हो?

आ सुंणर बोल्यो मतीरो
म्हारै तो आखी धरती ई है नानांणो
क्यूंकै म्हारी मां ‘बेल’ रो पीहर
आ धरती ई है,
अर इण धरती रा सपूत
थें सगळा किसान
म्हारा मामा हो
अर म्हैं थांरो भाणेंज
भाणूं रै तो अेक सरीखा हुवै
सगळा ई मामा
भाणूं तो निसंक जा सकै
किणी पण मामै रै आंगणै
जीम सकै दही बाटीयो
अब थां भायां रै
आपसरी में कोनीं संपती
तो उणमें म्हारो कांई दोष?
म्हैं तो फकत मेहमान ही हूं
चौमासै रै च्यार दिन।

स्रोत
  • पोथी : भींत भरोसै री ,
  • सिरजक : सत्येंद्र चारण ,
  • प्रकाशक : वेरा प्रकाशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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