कुंभार एक कळतरौ भर माटी लावै
नित रा उणनै गीली करै,
बणावै बासण पकावै,
राखै खवै अर बैच आवै गांव रै गूंदरै,
वौ हर तीजी सिंझ्या यूं ही माटी लावै
बासण बणा अर बैच आवै...
म्हैं आ सब देख'र सोचूं के
अेक माँ है उणरै भीतर
कई ऐड़ा बासण है जिका बण्या है
घर री माटी री दैण ऊं,
पाक्या है घट्टी री हूक ऊं,
जिका भरयोड़ा है कानोंकान
बा वानै ले अर
चालती आई है कई बरसां ऊं
पर वांरौ खरीददार कोई कोनीं।