दस बज'र गया जद तीस मिनट,
मिन्दरसा की घंटी लागी।
सुणतांईं बस्ता उठा-उठा,
छोरा भाग्या, छोर्यां भागी॥
सब आ'र लैण मैं लाग गया,
जन-मन-गण अधिनायक बोल'र।
जा-जा'र आपका दरजां मैं,
सब बैठ गया बस्ता खोल-खोल'र॥
मैं जा'र दूसरा दरजा मैं,
हाजरी सबां सैं बुलवाई।
हिन्दी की घन्टी बजतांईं,
झट बाल-वाटिका खुलवाई॥
गोविन्द बढई को पाठ खोल,
दो एक लकीरां खुद बाँची।
दो एक बँचा'र टाबराँ सैं,
वां की भी बुद्धी नै जांची॥
वै एक लकीर बांचबा मैं,
जावै छा केई ठोर अटक।
केई सबदां नै बार-बार,
कोई नै जाता सफा गटक॥
दस मिनट बीतगा पढ़बा मैं,
दस बीत गया समझाबा मैं।
बाकी दस मिनट बिताणा छा,
सीख्योड़ा नै दोहराबा मैं॥
मैं पूछी-“गांव आपणा मैं,
बढई कुण छै, कोडै रै छै?
आपणा गांव की बोली मैं।
ऊं बढई नैं कांई खै छै?”
सब एक दूसरा का मूंडा,
ओड़ी झाँक्या यूं लगा आस।
कोई जवाब दे दे झट-पट,
तो वां सब को कट जाय फास॥
ज्यो पढबा मैं पूरो ठस छो,
लिखबा मैं करै आळकस छो
नम्बरी च्यार सो बीस खूंऽक,
गुण्डो असली नम्बर दस छौ॥
अटकळ-पच्यूँ सैं हीं बोल्यो—
“बढई नै तोडं मैतर खै छै।
नाराण्यू, छिगन्यू अर धन्यू।
गांव कै पलै पळसै रै छै॥”
सुणतांई झूंझळ सैं म्हारी,
दोन्यूं आंख्यां हो लाल-लाल।
अणगिणती लपड़ां सैं ऊंका,
कर दीना दोन्यूं गाल लाल॥
वो ज्यादा पिटबा का डर सैं
रोयो आंख्यां हीं आंख्यां मैं।
ज्यो पीट्यां बिनां पढ़ातो हो,
एकाध मिलै लो लाख्यां मैं॥
ऊंनै रोतो ही छोड़ निजर
घूमी जिद म्हारी ओरां पर।
छोर्यां की तो कांई चालै,
आतंक छा गयो छोरां पर॥
अब कुण की तागत छी'क
बिना सोच्यां क्यूं ऐंड़-बैंड़ बोलै?
पण वो भी कोनै बच पासी,
ज्यो मूंड़ा नै ही नै खोलै।
आखिर हिम्मत कर एक जणू,
वां सबकी मार बचाबा नै।
बोल्यो “बढ़ई कै जावां छां
म्हे गाड़ी भूण कराबा नै”॥
सुणतांई सारो रोस उतर,
हांसी सी आगी होठां पर।
ज्यूँ हरयापणु उतर अर लाली
छा जावै पाक्या मोठां पर॥
अब सब छोरा-छोर् यां कै भी,
जीव मैं जीव आबा लाग्यो।
ज्यो पिट'र हबकबा लाग्यो छो,
होळै सी मुसकाबा लाग्यो॥
खैबा लाग्यो चीजां दिखा'र,
यो बोड और या अलमारी।
बढई ही भेज्या छै बणा'र,
ये डैगसां'र मेजां सारी॥
मैं पूछी “बोलो थां मैं सैं,
कुरसी नै कुण-कुण जाणै छै?
ऊंका रंग-रूप-बणावट नै।
देखां कुण आज बखाणै छै?”
या सुण'र एक छोरी बोली —
“रंग की भूरी, पीळी, काळी।
आवै छै काम बैठबा कै
अर हो छै च्यार पगां हाळी॥”
मैं खी'क-“पगां की जैयां हीं
थे सारी बात बताओ नै।”
वा बोली “हाथ कमर तो छै,
पण पेट ओर मूंडो कीनै॥”
मैं पूछी —“मूंडो ही कोनै
तो कैयाँ खावै —पीवै छै?
अर खावै-पीवै ही नै तो,
ई जग मैं कैयां जीवै छै?”
वा बोली —“कुरसी अर गिद्दी,
ये दोन्यू एक खवावै छै।
याँ दोन्यां कै मूँड़ा कौनै,
पण ये मिनखां नै खावै छै॥
बस या सुणबा की देर छी'क
म्हारो मांथो ही चकरागो।
विज्ञान, ज्ञान, दरसण सबको,
सिद्धान्त सामनै ही आगो॥
मैं खुद गिद्दी पर बैठ्यो छो,
जिदही बच्चाँ नै मारै छो।
ऊंपर नै होतो तो कुण-सो,
वाँमें सैं म्हारै सारै छो?
कुरसी पर टिकतां हीं न मिनख —
मैं मिनखपणू रै जावै छै।
या छोरी सांची ही खै छै,
“कुरसी मिनखां नै खावै छै”॥दस बज'र गया जद तीस मिनट,
मिन्दरसा की घंटी लागी।
सुणतांईं बस्ता उठा-उठा,
छोरा भाग्या, छोर्यां भागी॥
सब आ'र लैण मैं लाग गया,
जन-मन-गण अधिनायक बोल'र।
जा-जा'र आपका दरजां मैं,
सब बैठ गया बस्ता खोल-खोल'र॥
मैं जा'र दूसरा दरजा मैं,
हाजरी सबां सैं बुलवाई।
हिन्दी की घन्टी बजतांईं,
झट बाल-वाटिका खुलवाई॥
गोविन्द बढई को पाठ खोल,
दो एक लकीरां खुद बाँची।
दो एक बँचा'र टाबराँ सैं,
वां की भी बुद्धी नै जांची॥
वै एक लकीर बांचबा मैं,
जावै छा केई ठोर अटक।
केई सबदां नै बार-बार,
कोई नै जाता सफा गटक॥
दस मिनट बीतगा पढ़बा मैं,
दस बीत गया समझाबा मैं।
बाकी दस मिनट बिताणा छा,
सीख्योड़ा नै दोहराबा मैं॥
मैं पूछी-“गांव आपणा मैं,
बढई कुण छै, कोडै रै छै?
आपणा गांव की बोली मैं।
ऊं बढई नैं कांई खै छै?”
सब एक दूसरा का मूंडा,
ओड़ी झाँक्या यूं लगा आस।
कोई जवाब दे दे झट-पट,
तो वां सब को कट जाय फास॥
ज्यो पढबा मैं पूरो ठस छो,
लिखबा मैं करै आळकस छो
नम्बरी च्यार सो बीस खूंऽक,
गुण्डो असली नम्बर दस छौ॥
अटकळ-पच्यूँ सैं हीं बोल्यो—
“बढई नै तोडं मैतर खै छै।
नाराण्यू, छिगन्यू अर धन्यू।
गांव कै पलै पळसै रै छै॥”
सुणतांई झूंझळ सैं म्हारी,
दोन्यूं आंख्यां हो लाल-लाल।
अणगिणती लपड़ां सैं ऊंका,
कर दीना दोन्यूं गाल लाल॥
वो ज्यादा पिटबा का डर सैं
रोयो आंख्यां हीं आंख्यां मैं।
ज्यो पीट्यां बिनां पढ़ातो हो,
एकाध मिलै लो लाख्यां मैं॥
ऊंनै रोतो ही छोड़ निजर
घूमी जिद म्हारी ओरां पर।
छोर्यां की तो कांई चालै,
आतंक छा गयो छोरां पर॥
अब कुण की तागत छी'क
बिना सोच्यां क्यूं ऐंड़-बैंड़ बोलै?
पण वो भी कोनै बच पासी,
ज्यो मूंड़ा नै ही नै खोलै।
आखिर हिम्मत कर एक जणू,
वां सबकी मार बचाबा नै।
बोल्यो “बढ़ई कै जावां छां
म्हे गाड़ी भूण कराबा नै”॥
सुणतांई सारो रोस उतर,
हांसी सी आगी होठां पर।
ज्यूँ हरयापणु उतर अर लाली
छा जावै पाक्या मोठां पर॥
अब सब छोरा-छोर् यां कै भी,
जीव मैं जीव आबा लाग्यो।
ज्यो पिट'र हबकबा लाग्यो छो,
होळै सी मुसकाबा लाग्यो॥
खैबा लाग्यो चीजां दिखा'र,
यो बोड और या अलमारी।
बढई ही भेज्या छै बणा'र,
ये डैगसां'र मेजां सारी॥
मैं पूछी “बोलो थां मैं सैं,
कुरसी नै कुण-कुण जाणै छै?
ऊंका रंग-रूप-बणावट नै।
देखां कुण आज बखाणै छै?”
या सुण'र एक छोरी बोली —
“रंग की भूरी, पीळी, काळी।
आवै छै काम बैठबा कै
अर हो छै च्यार पगां हाळी॥”
मैं खी'क-“पगां की जैयां हीं
थे सारी बात बताओ नै।”
वा बोली “हाथ कमर तो छै,
पण पेट ओर मूंडो कीनै॥”
मैं पूछी —“मूंडो ही कोनै
तो कैयाँ खावै —पीवै छै?
अर खावै-पीवै ही नै तो,
ई जग मैं कैयां जीवै छै?”
वा बोली —“कुरसी अर गिद्दी,
ये दोन्यू एक खवावै छै।
याँ दोन्यां कै मूँड़ा कौनै,
पण ये मिनखां नै खावै छै॥
बस या सुणबा की देर छी'क
म्हारो मांथो ही चकरागो।
विज्ञान, ज्ञान, दरसण सबको,
सिद्धान्त सामनै ही आगो॥
मैं खुद गिद्दी पर बैठ्यो छो,
जिदही बच्चाँ नै मारै छो।
ऊंपर नै होतो तो कुण-सो,
वाँमें सैं म्हारै सारै छो?
कुरसी पर टिकतां हीं न मिनख —
मैं मिनखपणू रै जावै छै।
या छोरी सांची ही खै छै,
“कुरसी मिनखां नै खावै छै॥”