एक दिन अचाचूक

बो उठ्यो।

किंवाड़ खोल्या

बारै निसर्‌यो

अनै जावतो-जावतो

काई ठा कांई सोच'र

चल्यो गयो ढक’र

बारै सूं कूटौ

अब पूठौ

आ'र बो कूटै है म्हारा किंवाड़

बारणौ बा’रै सूं बन्द है

तो

अनै जिकै नै

कै म्हूं नईं खोल सकूं

खोल सकै है

फकत बो

म्हूं जाणूं हूँ

कै की ओपचारिक थपकियां पछै

वो पाछो मुड़ जावैलो

अनै कूटो नईं खोलण रो दोस

म्हां माथै लगावैलो

बस,

इण पछै

बो बरी है

लोग म्हनै देवैला लाणती

कै म्हूं देखो

उण रै साथै।

किसी’क कोजी करी है।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : शंकरलाल मीणा ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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