खेत बिक रैया है
विकास है नांव
ओ सोच्यां बिनां
कै
इण ढब विकास हुयां
खेत कठै बचैला?
अर
जे खेत नीं बच्या
तो सोचो—
का’ल
पेट भरण सारू
कांई खांवाला!
स्रोत
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पोथी : इक्कीसवीं सदी री राजस्थानी कविता
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सिरजक : संजू श्रीमाली
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संपादक : मंगत बादल
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प्रकाशक : साहित्य अकादेमी
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- संस्करण : प्रथम संस्करण